भारतीय ग्रामीण संस्कृति
में किसी गाँव के किसी रसोई की
है तस्वीर बिलकुल आम सी
एक लेखक की नज़र से
बोल पड़ेगी इसमें रखी हर आकृति
हर वस्तु लगने लगेगी ख़ास सी
एक नज़र देखने पर लगे
ऐसा है क्या तस्वीर में
पिली मिट्टी से लीपी पुती हुई
कच्ची दीवारों से बना घर
उसमें एक कोने में रसोई
ले दे के गिनती के बरतन
दो भगोने ,एक हंडा ,एक लोटा
दो धामे आटे से भरी परात
एक चमचा ,ग्लास ,एक चूल्हा
चूल्हे में पड़ी दो जलती लकड़ियाँ
और उठता धुआँ करे हाल बेदम
बनती रोटी के लिए चिमटा तक नहीं
बेलने के लिए ना चकला बेलन
थेली में पड़ी दाल
पुराने से डब्बे में तेल
हो गया इनका आज का राशन
एल्यूमिनियम का कनस्तर
जिसका ना कोई ढक्कन
टूटी फूटी चीज़ों से
जैसे तैसे तो खाना है पक रहा
स्त्री जो पका रही है खाना
उसकी दशा का क्या कहना
खिचड़ी बाल अजब सा हाल
बिंदी लाल चूड़ी लाल
सिर पर घूँघट डाल
बैठे बैठे आटा रही है सान
समझ नहीं आता
फिर भी ये खाना खा कर
खाने वाले को मिलेगी असीम तृप्ति
खिला कर भोजन तृप्त होगी ये स्त्री
कुछ बात है जो इसे बनाती ख़ास
नहीं पता !!!!! तो बताते है राज
ऐसे ही नहीं गुणगान हो रहा
फ़ाइव स्टार जैसा घर न सही
कच्ची मिट्टी का ये घर मोह रहा
सीमित साधनों से जीवन जीते है
कल की चिंता में जी को नहीं जलाते है
जो मिले उसमें संतोष करते है
कड़ी मेहनत से नहीं घबराते है
आने वाले को भी जैसा हो खिलाते है
रुखा सूखा जो मिले पेट भरते है
तभी तो घर में दो चार निवाले भी
छप्पन भोग से बड़कर लगते है ।