Saturday 6 October 2018



भारतीय ग्रामीण संस्कृति 
में किसी गाँव के किसी रसोई की 
है तस्वीर बिलकुल आम सी
एक लेखक की नज़र से 
बोल पड़ेगी इसमें रखी हर आकृति 
हर वस्तु लगने लगेगी ख़ास सी 
एक नज़र देखने पर लगे 
ऐसा है क्या तस्वीर में 
पिली मिट्टी से लीपी पुती हुई 
कच्ची दीवारों से बना घर 
उसमें एक कोने में रसोई 
ले दे के गिनती के बरतन 
दो भगोने ,एक हंडा ,एक लोटा 
दो धामे आटे से भरी परात 
एक चमचा ,ग्लास ,एक चूल्हा 
चूल्हे में पड़ी दो जलती लकड़ियाँ 
और उठता धुआँ करे हाल बेदम 
बनती रोटी के लिए चिमटा तक नहीं 
बेलने के लिए ना चकला बेलन 
थेली में पड़ी दाल 
पुराने से डब्बे में तेल 
हो गया इनका आज का राशन 
एल्यूमिनियम का कनस्तर 
जिसका ना कोई ढक्कन 
टूटी फूटी चीज़ों से 
जैसे तैसे तो खाना है पक रहा 
स्त्री जो पका रही है खाना 
उसकी दशा का क्या कहना 
खिचड़ी बाल अजब सा हाल 
बिंदी लाल चूड़ी लाल 
सिर पर घूँघट डाल 
बैठे बैठे आटा रही है सान 
समझ नहीं आता 
फिर भी ये खाना खा कर 
खाने वाले को मिलेगी असीम तृप्ति 
खिला कर भोजन तृप्त होगी ये स्त्री 
कुछ बात है जो इसे बनाती ख़ास 
नहीं पता !!!!! तो बताते है राज 
ऐसे ही नहीं गुणगान हो रहा 
फ़ाइव स्टार जैसा घर सही 
कच्ची मिट्टी का ये घर मोह रहा 
सीमित साधनों से जीवन जीते है 
कल की चिंता में जी को नहीं जलाते है 
जो मिले उसमें संतोष करते है 
कड़ी मेहनत से नहीं घबराते है 
आने वाले को भी जैसा हो खिलाते है 
रुखा सूखा जो मिले पेट भरते है 
तभी तो घर में दो चार निवाले भी 
छप्पन भोग से बड़कर लगते है